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Showing posts from February, 2011

मैं और तुम

तुम हो दिन और रात सभी , मैं तो हों केवल एक प्रहर, तुम झर - झर बहती निर्झर सी, मैं तो हूँ केवल जड़ प्रश्तर . गुस्से में तुम तमतमाई शिव के तांडव की ज्वाला हो , मस्ती में तुम  बच्चन के मधुशाला की हाला हो,    जब आती है हाला शाकी बन, जैसे मुझ पर ही हो नश्तर..    तुम हो दिन और रात सभी , मैं तो हूँ केवल एक प्रहर ......... हंसी छिटकती है ऐसे, जैसे प्रश्तर पर छिटके जल हंसी मुखरती है ऐसे , जैसे खिलता है रक्त कमल   तुम गहरे पानी की ' मृणाल ' , मैं तो हूँ केवल एक भ्रमर    तुम हो दिन और रात सभी , मैं तो हूँ केवल एक प्रहर ......... केश सुनहरे लहराते ज्यूँ काले बादल में प्रकाश पलक झपकने की मादकता, ज्यूँ शाम ढले आकाश   मैं भ्रमित पथिक भूखा प्यासा , तुम हो एक जीवनदायी कहर   तुम हो दिन और रात सभी , मैं तो हूँ केवल एक प्रहर .... अधरों का हिलना ऐसे ज्यूँ , मंद- मंद सी कोई लहर रक्त अधर के मध्य प्रकाशित, मोती पंक्ति ज्यों प्रथम प्रहर    यह नैन -नक्श तीखे - तीखे , हो जाऊं न घायल लगता डर.       तुम हो दिन और र...